दिए का साक्षात्कार
मैंने पूंछा
ए दिये
क्या करते हो तुम रौशनी
निश्कपट, निस्वार्थ
दिया बोला "हाँ " मगर
नहीं जलाते अब लोग मुझे
निशकपट ,निस्वार्थ
मैंने कहा ,तुम भी तो नहीं जलते
अब बिना धुंआ किये ?
रो दिया वो "दिया"
नहीं देता मुझे तेली शुद्ध तेल
न बाती ,न शुद्ध मन ,
जो मै जल सकूँ बिना धुएं के
दे सकूँ वो रौशनी जो करे दिलों को रौशन
पी लूँ जहर मिला तेल भी
निगल जाऊं हलक में रस्सी समझ बाती मगर
किर तरह जलूं ,बिन भावना ,बिन प्रेम
कैसे मिटा सकूँ अँधेरे अपने औ तुम्हारे
इस तरह मैं "दिया"
मलकीत सिंह "जीत"
बहुत खूब .....
जवाब देंहटाएंकुछ अलग हट के अच्छी लगी रचना .....
बहुत बढ़िया प्रस्तुति...बधाई
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